५ अगस्त, १९७०

 

   यह 'चेतना' जो एक वर्षसे ऊपर, अबसे डेढ़ वर्ष पहले आयी थी, ऐसा लगता है कि वह सच्चाईके लिये निश्चित रूपसे बहुत, बहुत श्रम कर रही है । वह ''ढोंग'' को प्रश्रय नहीं देती, वह यह नहीं चाहती कि तुम कुछ होनेका ढोंग करो, पर वास्तवमें न हों । वह चाहता है कि चीज सच्ची चीज हो । '

 

    जी हां, चीजें ऊपर उठ आती है ।

 

यह शरीरके लिये बढ़िया परामर्शदाता है । वह उसे हमेशा पाठ सिखाता रहता है... । मुझे पता नहीं कि सब शरीर ऐसे हैं या नहीं, लेकिन यह शरीर तो एक छोटे बच्चोंकी स्थाई अनुभव करता है और वह विद्यालय जाना चाहता है, वह चाहता है कि उसे बतलाया जाय कि वह कहां भूल कर रहा है । वह सब कुछ सीखना चाहता है । और वह हमेशा सीखता रहता है । लेकिन जो कुछ बाहरसे आता है... । यह बहुत मजेदार है,

 

 यहांपर माताजीने (कम-से-कम इस बार) चेतनाके लिये पुल्लिगका उपयोग किया है ।


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वह 'चेतना', (वह 'चेतना' जो वहां है) (माताजी ऊपरकी ओर इशारा करती है) किसीसे प्रभावित नहीं होती. वह साक्षी है, वह देखती है, पर ग्रहण नहीं करती; शरीर स्पंदनोंको ग्रहण करता है : जब कुछ लोग आकर मेरे सामने बैठते हैं तो अचानक दर्द होता है, चीजें ठीक नहीं चलती । लेकिन अव शरीर जानता है (स्वभावत:, वह जानता है कि उसे पीड़ा हों रही है), लेकिन वह औरोंको दोष नहीं देता, वह अपने-आपको दोष देतामैक; वह इन्हें उन बिंदुओंका सूचक मानता है जो अभीतक एकमात्र भगवान्के प्रभावतले नहीं आये है । और इस दृष्टिसे चीज बहुत मजेदार है... । वह जानता है कि उसमें और उस व्यक्तिकी चेतनामें कितना अंतर है जो उसका उपयोग कर रहा है । लेकिन इससे उसे कष्ट नहीं होता, वह पूर्ण नम्रता और विनयसे भरा है । उसे आश्चर्य नहीं होता, उसे चिंता नहीं होती, उसका सचमुच यही मतलब होता है : ''तेरी इच्छा पूरी हों, यह मेरा काम नहीं है, मैं निर्णय करनेमें असमर्थ हू और मैं कोशिश नहीं करता -- तेरी इच्छा पूरी हों । '' तो शरीर ऐसा है (निष्क्रिय और परित्यक्तकी मुद्रा), और जब वह गायब हों जाता है, जब वह पूरी तरह, पूरी तरह समर्पित हो जाता है, अपने-आपमें उसका कोई अस्तित्व ही नहीं रहता तो उसमेंसे गुजरनेवाली 'शक्ति' कमी-कभी. दुर्जेय होती है । कमी-कमी यह देरहा जा सकता है, साक्षी चेतना यह देख सकती है कि सचमुच संभावनाओंकी कोई हद नहीं होनी चाहिये । लेकिन यह अभीतक वह नहीं है, यह अभी उससे दूर है... यह, जो हो सकता है उसका उदाहरण है । लेकिन.. वह सहज-स्वाभाविक बने उससे पहले...

 

(लंबा मौन)

 

तुम्हें कृउछ कहना है?

 

पता नहीं ठीक है या नहीं, लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि आप- की उपस्थितिमें कुछ वर्ष पहले हमारे साथ जो होता था और अब जो है उसमें फर्क है । उदाहरणके लिये, पहले, मुझे प्रायः ऐसा लगता था कि आप सक्रिय रूपसे हमारे साथ हैं या सक्यि रूपसे हमारे साथ व्यस्त है; पता नहीं यह ठीक है दा नहीं, अब मुझे ऐसा लगता है कि अब यह किसी शक्तिपर छोड़ दिया गया है... कोई निर्वैयक्तिक शक्ति नहीं, लेकिन...

 

 ओह! यह सच है कि मैंने अधिकतर कार्य इस 'चेतना' के ऊपर छोड़ दिया

 

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है। यह सच है । मै चेतनाको सक्रिय रूपमें काम करने देती हू क्योंकि . मैने देखा कि वह सचमुच जानती है । अन्यथा तुम्हारे सामीप्यका भाव अव ज्यादा मजबूत, बहुत ज्यादा मजबूत है । मुझे ऐसा लगता है मानों मै. तुम्हारे अंदर घूम रही हू । पहले ऐसा न था । लेकिन शायद पहले मेरी चेतना तुम्हारी चेतनापर दबाव डाला करती थी । शायद अब वह ऐसा नहीं करती क्योंकि... अब ऐसा है मानों मैं अंदरसे वही कर रही हू ।

 

 ..... जी हां, जब हम आपके साथ होते हैं, आपके पास होते है तो यह स्पष्ट होता है । आदमी इसे अनुभव कर सकता है और तब ऐसा लगता है कि आप अंदर है ।

 

हां, ऐसा है !

 

जी, ठीक ऐसा ही है, लेकिन जब व्यक्ति भौतिक रूपसे आपसे टर रहे तो उसे लगता है कि वह किसी निर्वैयक्तिकके अंदर है । मुझे पता नहीं कि यह ठीक है या नहीं ।

 

शायद वह निर्गुण बन गयी हो । मुझे ऐसा लगता है कि इस शरीरकी चेतनामें भी व्यन्क्तिगत कम-से-कम है । कमी-कभी मेरे अंदर यह भाव भी नहीं रहता कि मेरे शरीरकी कुछ सीमाएं है । पता नहीं किसे कहा 'जाय... । हां, ऐसा ही है, यह ऐसा है माना वह तरल बन गया हो । ओर लब कोई मी व्यक्तिगत क्रिया नहीं होनी चाहिये । परंतु यथार्थतः, अंदर (पता नहीं -?ऐसे समझाया जाय) वह ऐसा नहीं है, मानों कोई ऐसा व्यक्ति है जो इतना बड़ा हो गया हों कि औरोंको भी अपने अंदर लें ले । ऐसा नदवी है वह बहु एक शक्ति है, एक चेतना है जो सबपर फैली हुई है । मुझे किसी सीमाका अनुग्रह नहीं होता । मुझे लगता है कि भौतिक रूपसे मी यह कोई फैत्ठी हुई चीज है. । इसीके कारण अगर कोई बहुत सक्रिय आलोचक भावसे अवलोकन और निर्णय करनेके लिये आये तो मानों वह अंदर घुस जाता है, समझे, और इससे अंदर गड़बड़ हो जाती है ।

 

मुझे नहीं लगता कि क्रिया किसी वैयक्तिक क्रियाका भाव देती है -- लेने बहुत समयसे ऐसा है (कम-से-कम वर्षके आरंभमें तो है ही) । जब लोग मुझे यह लिखते है कि उन्होंने यह अनुभव किया है कि मैंने उनके लिये यह किया और वह किया तो मैं अचरजमें पंड जाती हू । अगर वे

 

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कहते '' 'शक्ति' ने ऐसा किया'' या '' 'चेतना' ने वैसा किया,'' तो मुझे वह अधिक स्वाभाविक लगता ।

 

जो बोलता है, जो अवलोकन करता है, वह चेतनाका एक केंद्र है जो वहां स्थित है, (ऊपरकी ओर इशारा), लेकिन स्वभावतः, स्थानीय नहीं बन गया है : मुख तथा इंद्रियोंके द्वारा संचारण करनेके लिये यह वहां है (पहले जैसा इशारा), लेकिन उसका स्वभाव व्यक्तिके जैसा नहीं होता.. । हां, जब मुझसे यह प्रश्न पूछा जाता है. ''आप उसे कैसे देखती है? '' तो मुझे प्रश्न समझनेमें कुछ देर लगती है । मुझे नहीं लगता कि देखनेवाला एक व्यक्ति है ।

 

  कुछ अनुभूतियोंसे मुझे ऐसा ख्याल आता है कि भौतिक सत्ताके लिये व्यक्तिगत सीमाओंका होना जरूरी नहीं है; यह ऐसी चीज है जिसे सीखना तो पड़ता' है, परंतु वह आवश्यक नहीं है । हमेशा यह अनुभव किया गया था कि पृथक व्यक्तित्वोंको बनानेके लिये सीमित शरीर आवश्यक है -- यह आवश्यक नहीं है । तुम उसके बिना भौतिक रूपमें रह सकते हो, शरीर उसके बिना जी सकता है... । सहज रूपसे, यानी, अगर शरीरको पुरानी आदतों और जीवन-विधिके साथ छोड़ दिया जाय तो यह कठिन है । इससे एक आंतरिक संगठन पैदा होता है जो बहुत ज्यादा अव्यवस्था जैसा लगता है -- यह कठिन है । हर चीजके लिये, हर चीजके लिये सारे समय समस्याएं आती रहती है । शरीरकी एक भी क्रिया ऐसी नहीं है जिसे व्यक्तिगत सीमाओंके अभावमें समस्याओंका सामना नहीं करना पड़ता । यह प्रक्रिया वही पुरानी प्रक्रिया नहीं रही । यह वह नहीं है जो पहले था, लेकिन अभी जैसा है यह आदत नहीं बनी है, सहज अभ्यास नहीं बना है । मतलब यह कि अभी यह स्वाभाविक नहो बना है । इसके लिये चेतनाको हूर समय निगरानी रखनी पड़ती है - हर चीजके लिये., भोजन निगलनेतकके लिये, समझते हों? और इससे जीवन जरा कठिन हो जाता है -- हां, और विशेष रूपसे जब मैं लोगोंसे मिलती हू । मै एक बड़ी संख्यामें लोगोंसे रोज मिलती हां (हर रोज चालीस, पचास), और हर एक कुछ ऐसी चीज लाता है जिसके लिये उस 'चेतना' को जो इन सब बातोंको देखती है, उसे अपने-आपको बाहरसे आनेवाली चीजोंके अनुकूल बनाना पड़ता है.. । और मै देखती ? बहुत-से लोग बीमार हो जाते है (या सोचते है कि वे बीमार हो या बीमार-से लगते हैं या सचमुच बीमार होते हैं), लेकिन यह उनकी सत्ताके तरीकेसे, जो उसका पुराना तरीका है; शरीरमें ठोस रूप लें लेता है । इस नयी भौतिक चेतनामें उससे बचा जा सकता है । लेकिन ओह! इसका

 

अर्थ है बहुत सारी कठिनाई! व्यक्तिको सचेतन एकाग्रताके द्वारा एक ऐसी अवस्था बनाये रखनी चाहिये जो पुरानी प्रकृतिके अनुसार स्वाभाविक नहीं है, लेकिन जो स्पष्ट रूपसे नयी जीवन-पद्धति है । लेकिन उस तरीकेसे बीमारियोंसे बचा जा सकता है । लेकिन यह प्रायः एक भगीरथ प्रयास है ।

 

   यह कठिन है ।

 

   तुम समझते हों, समस्त असंभावनाएं, सभी ''यह नहीं हों सकता, वह नहीं किया जा सकता... '' ये सब बुहार फेंके गये हैं; ये तात्विक रूपमें बुहार दिये गये है और यह चीज अब एक तव्य, ठोस तथ्य बननेकी कोशिश- मे लगी है ।

 

यह बहुत हालकी चीज है, इस वर्षके आरंभके बादकी । और फिर, वे सव पुरानी आदतें -- कह सकते हैं नब्बे वर्षोकी आदतें । लेकिन शरीर जानता है, वह जानता है कि यह केवल आदत ही है ।

 

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